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Saturday, January 17, 2015

स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली


एक बात जनहित मे जिनगी सँ जोड़ि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।

मनुष्य छी मनुष्य बनि रहू सदति समाज मे
सदिखन सब व्यस्त रहू अपन-अपन काज मे ।
घमंडक अपन घैल पटकि-पटकि फोड़ि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।

भारत अछि देश अहँक भारतीय अहाँ बनू
भाषा आ प्रांत निमित्त अगिन जाल जुनि बुनू ।
एकताक सूत्र मे देश केँ संगोरि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।

राखू जुनि हृदय मध्य कनिको टा कलह द्वेष
बाँटक प्रयास करू जन-जन केर दुख कलेस ।
त्यागि सकल दुर्गुण केँ सद्गुण निचोड़ि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।

माइ केर सपूत बनू देश केर बचाउ लाज
करू सदति सद्प्रयास वर्गहीन हो समाज ।
छूत आ अछूत केर भेद भाव तोड़ि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।

भारत केर ‘तरुण’ अहाँ देश केर उठाउ भार
घर-घर सुशिक्षाक मिलि जुलि करू प्रचार ।
घृणा क्रोध हिंसा केँ जड़ि सँ मरोड़ि ली
स्नेहक शुचि सरबर मे अपना केँ बोरि ली ।


[21-04-1984 केँ सांझ 6:00 बजे आकाशवाणी दरभंगाक ‘गाम घर’ कार्यक्रम मे साम्प्रादायिक सद्भाव पर आयोजित कवि गोष्ठि मे पढ़ल गेल ।]

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