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Saturday, August 30, 2014

हरि लेलक सर्वश्व सब केर कौशिकीक जलधार

हरि लेलक सर्वश्व सब केर कौशिकीक जलधार
जतहि देखी ततहि लागल बालु केर अम्बार ।

दुखें कातर कानि रहलै जाहिठाँ सब लोक
सोचि ई जे कोना चलतै जीवनक व्यापार ।

उगि आयल कास संगहि यत्र तत्र पटेर
काल्हि तक छल जतय लागल फसलि केर अम्बार ।

बसल अछि जे लोक एखनहु कौसकीक कछेर
मात्र जननी जन्मभूमिक प्रेमवश लाचार ।

कोस भरि केर बाट लागय जेना जोजन दूर
होइछ रहि रहि पथिक के मन जतय भय संचार ।

अछि तरूण जहिठाँ कतेको समस्या केर जाल
कोना हँटतै अछि जखन आन्हर बहिर सरकार ।


31-10-1994 : बनैनियाँ
मिथिला लोक संवाद केँ प्रेषित/ संभवतः प्रकाशित

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