हरि लेलक सर्वश्व सब केर
कौशिकीक जलधार
जतहि देखी ततहि लागल
बालु केर अम्बार ।
दुखें कातर कानि रहलै
जाहिठाँ सब लोक
सोचि ई जे कोना चलतै
जीवनक व्यापार ।
उगि आयल कास संगहि यत्र
तत्र पटेर
काल्हि तक छल जतय लागल
फसलि केर अम्बार ।
बसल अछि जे लोक एखनहु
कौसकीक कछेर
मात्र जननी जन्मभूमिक
प्रेमवश लाचार ।
कोस भरि केर बाट लागय
जेना जोजन दूर
होइछ रहि रहि पथिक के मन
जतय भय संचार ।
अछि तरूण जहिठाँ कतेको
समस्या केर जाल
कोना हँटतै अछि जखन
आन्हर बहिर सरकार ।
31-10-1994 : बनैनियाँ
मिथिला लोक संवाद केँ
प्रेषित/ संभवतः प्रकाशित
बहुत सुन्दर !!
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